Saturday, 8 October 2016

हमारे स्कुल बच्चोंको कारागृह तो नही लगते ?

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जे कृष्णुमूर्ती जी ने एक बार एक बार एक विधान किया था उसे सुनकर मैं दंग रह गया उन्होंने कारागृह और पाठशाला  इसका साधर्म्य लोगोंको दिखाया था ।
ऐसा हमने कभी सोचा भी नही की इन दोन्हो की तुलना हो सके शायद इसमें मत भिनता हो सकती है लेकिन इसमें जो साम्य है इसको नकारा नही जा सकता।
यदि हम  ने देखा तो कोई भी आमतौरपर स्कुल में जाना नही चाहता है यदि हम सबको छूट दे की जिसको नही जाना चाहते  हो वह  स्कुल या पाठशाला में न जाये  तो शायद ही कोई तयार हो कृष्णमूर्तिजी को इसका विचार क्यों आया इसका  अभ्यास होना जरूरी है ।

         आमतोर पर जब स्कुल चालू रहता है तो स्कुल में आपको शांतता सुनाई और दिखाई देती है पर वही स्कुल छूटने के बाद उत्साह और आंनद का माहौल नजर  अता  है विद्यार्थियोंका यह वर्तन हमे क्या बताता है की हमने उनको बांध के रखा था और वो स्कुल छूटने के बाद मुक्ती आंनद मना रहे है जब स्कुल में कल की छुट्टी बताई जाती है तभी इसी आंनद गड़गड़ाहट हमे सुनाई देती है ।

       शायद हमने उनको स्कुल में भेज के जो जात्ती की है उसके खिलाप उनका ये छोटासा उठाव तो नही होता यदी हमारा बचपन टटोले तो हम भी बहोत बार स्कुल को छुटी मारने के कारण ढूंढते नजर आते है कृष्णमूर्तिजी भी स्कुल के बारे अपने विचार में कहते है की मेरे भी अनुभव कुछ अछे नही है मैं अबोल था मैं  भी जादातर शिक्षको में प्रिय नही था घरमे पुरानी घड़िया खोलके देखने में मुझे जादा  आनंद आता था उसी बहाने मैं स्कुल का वक्त टालने की कोशीश करताथा, रवींद्रनाथ ठाकुर जी ने भी अपनी तीसरी कक्ष में ही स्कुल छोड़ दिया था ।

अण्णा  भाऊ साठे जी ने अपनी तीसरी कशा में शिक्षकोने पीटने के बाद स्कुल छोड़ा था वही अण्णा भाऊ साहित्य सम्राट हो जाते है,  ऐसे नापास हो के स्कुल छोड़ने वाले बचोने इतिहास रचने का अनुभव हमे बारबार सुननेको मिलता है इसका एक अर्थ ऐसा भी हो सकता है की प्रतीभा जगाने में स्कुल ये माध्यम अपवाद से ही काम अता  है  ये भी विचारार्थ रखने की आवश्यकता है। 

इसी संदर्भ  में कृष्णमूर्तिजी जो विचार रख रहे है ओ समझना जरूरी है हमारे स्कुल बच्चोंको आकर्षित नहीकरते वहाँ की गतिविधियां हमे कारागृह की याद दिलाती है इन्ही कारण हजारो बच्चे स्कुल छोड़ कर भाग जाते है ।

ऐसा प्रतीत होता है की हमारे अहंकार फूलने के लिये स्कुल जैसी व्यवस्था का हम उपयोग कर रहे है ये व्यवस्था हमारे लिए हमने बनाई है बचो के लिये नही यही लगने लगा है यही विधान अलग तरीकेसे रख दे तो माता और पिता अपने बचो का उपयोग अपने अहंकार पूर्ती के लिए कर रहे है क्या? इसे भी जाचने की आवश्यकता है इसी वजह से स्कुल क्या अपने घर भी इन्ही तुरुंग में तब्दील हो रहे है हमे प्रेम ,तपस्या ,यही स्कुल की भाषा होनी चाहिए तभी इस स्कुल और कारागृह का साधर्म्य मिटा देगी यही शायद कृष्णमूर्तिजी बताना चाहते हो ।


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